प्रधानमंत्री का प्रश्नकाल: क्या भारतीय लोकतंत्र के लिए एक नई शुरुआत का वक्त आ गया है?
भारतीय लोकतंत्र के सबसे प्रमुख स्तंभ – संसद – को लेकर एक नई बहस ने जन्म लिया है। बहस का विषय है – 'प्रधानमंत्री का प्रश्नकाल' शुरू किया जाए या नहीं? यह सुझाव हाल ही में प्रकाशित एक चर्चित पुस्तक ‘द इंडियन पार्लियामेंट: संविधान सदन टु संसद भवन’ में दिया गया है। इस किताब के लेखक हैं लोकसभा सचिवालय के पूर्व अतिरिक्त सचिव देवेंद्र सिंह, जिन्होंने भारतीय संसद की वर्तमान स्थिति, कार्यप्रणाली, और जन अपेक्षाओं के बीच बढ़ते फासले को रेखांकित किया है।
संसद के चरित्र में बदलाव की आवश्यकता
पुस्तक में जोर देकर कहा गया है कि संसद को सिर्फ विधायी निकाय के रूप में सीमित न रखते हुए, एक उत्तरदायी और संवादशील लोकतांत्रिक मंच के रूप में परिवर्तित करना जरूरी है। इसके लिए संसद की बहस और चर्चा के प्रारूप में आमूल-चूल परिवर्तन लाने की बात की गई है।
लेखक का तर्क है कि संसद की कार्यवाही में जनता की भागीदारी और विश्वास तभी मजबूत हो सकते हैं जब कार्यपालिका, विशेषकर प्रधानमंत्री, को सीधे जवाबदेह बनाया जाए।
'प्रधानमंत्री का प्रश्नकाल': क्या है इसका महत्व?
पुस्तक में सुझाया गया है कि हर सप्ताह संसद में एक विशेष सत्र 'प्रधानमंत्री का प्रश्नकाल' आयोजित किया जाए, जिसमें सांसदों को यह अधिकार हो कि वे सीधे प्रधानमंत्री से प्रश्न पूछ सकें। यह परंपरा कई लोकतांत्रिक देशों जैसे ब्रिटेन में पहले से मौजूद है, जहां Prime Minister's Questions (PMQs) हर बुधवार को आयोजित होती हैं।
'प्रधानमंत्री का प्रश्नकाल' तीन प्रमुख उद्देश्यों की पूर्ति कर सकता है:
- कार्यपालिका की सीधी जवाबदेही सुनिश्चित करना।
- तत्काल जनमुद्दों को उच्चतम स्तर पर उठाना।
- सरकारी नीतियों की पारदर्शिता और प्रभावशीलता की जांच करना।
लोकतंत्र की मजबूती की दिशा में एक कदम
पुस्तक के अनुसार, ‘प्रधानमंत्री का प्रश्नकाल’ न केवल जनता की समस्याओं को सर्वोच्च स्तर तक पहुंचाने का माध्यम बनेगा, बल्कि यह औपनिवेशिक शासन की विरासत से भारतीय लोकतंत्र को पूर्णतः मुक्त करने की दिशा में भी एक निर्णायक कदम होगा।
यह न सिर्फ सत्ता पक्ष के लिए आत्ममंथन का अवसर होगा, बल्कि विपक्ष को भी एक संवैधानिक और मर्यादित मंच प्रदान करेगा जहाँ वे तथ्य आधारित आलोचना कर सकेंगे।
संसद में 100 दिन की बैठक का सुझाव
सिर्फ 'प्रधानमंत्री का प्रश्नकाल' ही नहीं, पुस्तक में यह भी प्रस्तावित किया गया है कि हर वर्ष संसद की कम से कम 100 दिन की बैठक अनिवार्य रूप से आयोजित हो। वर्तमान परिदृश्य में संसद के सत्रों की औसत संख्या घटती जा रही है, जिससे विधायी कार्यों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
यदि यह 100 दिनों की बैठक सुनिश्चित की जाए, तो न केवल विधायी कामकाज को गति मिलेगी, बल्कि संसद की जनहित में भूमिका भी कहीं अधिक स्पष्ट और प्रभावशाली होगी।
जनता की निराशा का कारण क्या है?
पुस्तक में यह भी स्वीकार किया गया है कि संसद को लेकर जनता के बीच निराशा और अविश्वास का माहौल बनता जा रहा है। इसके पीछे कुछ प्रमुख कारण हैं:
- कुछ सांसदों का अनुशासनहीन एवं अनैतिक आचरण,
- लगातार कार्यवाही का बाधित होना,
- और संसदीय मर्यादाओं की अवहेलना।
इस स्थिति से निपटने के लिए लेखक ने सुझाव दिया है कि प्रश्नकाल को पुनर्जीवित किया जाए, और उसमें से प्रधानमंत्री के प्रश्नकाल की शुरुआत एक नई ऊर्जा भरने का काम करेगी।
तकनीक का इस्तेमाल: 'साइबर इंटरफेस'
पुस्तक में संसद की कार्यवाही को आम जनता तक और अधिक सुलभ बनाने के लिए साइबर इंटरफेस की बात भी कही गई है। डिजिटल प्लेटफॉर्म्स, लाइव स्ट्रीमिंग, इंटरएक्टिव वेबसाइट्स, और मोबाइल एप्स के माध्यम से नागरिकों को संसद के कार्यों से जोड़ा जा सकता है।
विपक्ष की भूमिका होगी और मजबूत
'प्रधानमंत्री का प्रश्नकाल' विपक्ष के लिए भी एक सुनहरा अवसर होगा। इससे वो तथ्यों के आधार पर सरकार से सवाल पूछ सकते हैं और प्रचारवादी या अशालीन विरोध से बचते हुए मुद्दों की राजनीति को स्थापित कर सकते हैं। यह न सिर्फ बहस के स्तर को ऊँचा उठाएगा बल्कि कार्यवाही की गरिमा को भी बढ़ाएगा।
क्या भारतीय राजनीति इसके लिए तैयार है?
हालांकि यह विचार लोकतांत्रिक आदर्शों के अनुरूप प्रतीत होता है, लेकिन भारतीय राजनीति की मौजूदा स्थिति में यह बदलाव लाना इतना आसान नहीं होगा। कई सवाल खड़े होंगे:
- क्या सरकार इस तरह की सीधी जवाबदेही को स्वीकार करेगी?
- क्या विपक्ष इस मंच का उपयोग गंभीरता से करेगा?
- क्या संसद की कार्यप्रणाली में इतनी लचीलापन और आधुनिकता है कि वह इस बदलाव को आत्मसात कर सके?
क्या यह भारतीय लोकतंत्र का नया अध्याय होगा?
'प्रधानमंत्री का प्रश्नकाल' भारतीय संसदीय व्यवस्था में सार्थक पारदर्शिता, संवाद और जवाबदेही की नींव रख सकता है। यह न सिर्फ भारतीय राजनीति में एक नवीन और सकारात्मक परंपरा की शुरुआत करेगा, बल्कि जनता और उनके निर्वाचित प्रतिनिधियों के बीच की दूरी भी कम करेगा।
अब यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या संसद और राजनीतिक नेतृत्व इस सुझाव को गंभीरता से लेता है, और क्या आने वाले वर्षों में भारतीय लोकतंत्र में एक नया अध्याय जुड़ता है – प्रधानमंत्री का प्रश्नकाल।
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