जातिवार जनगणना 2025: ओबीसी सूची से बाहर हो सकती हैं कई जातियां, राजनीतिक संतुलन पर पड़ेगा असर?
सरकारी सूत्रों के अनुसार, यह निर्णय एक उच्चस्तरीय बैठक में लिया गया, जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह और आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत शामिल थे। माना जा रहा है कि इस बैठक में जातिगत राजनीति के दुरुपयोग को रोकने और ओबीसी वर्ग की वास्तविक स्थिति को आंकड़ों के आधार पर समझने के लिए इस पहल पर सहमति बनी।
जातिवार जनगणना का उद्देश्य क्या है?
सरकार का मुख्य उद्देश्य है कि देश में मौजूद हर जाति की आर्थिक, सामाजिक और शैक्षणिक स्थिति का वास्तविक आकलन किया जाए। अभी तक पिछड़े वर्गों को मिलने वाला आरक्षण और योजनाएं 1931 की जनगणना पर आधारित हैं, जो अब न तो प्रासंगिक हैं और न ही न्यायसंगत।
2025 की जनगणना में पहली बार हर जाति की वास्तविक जनसंख्या के साथ-साथ उनके शैक्षणिक स्तर, रोजगार की स्थिति, आर्थिक स्थिति और सामाजिक भागीदारी के आंकड़े भी जुटाए जाएंगे।
क्या हो सकता है जातियों का पुनर्मूल्यांकन?
इस पहल के बाद यह पूरी तरह संभव है कि:
- कुछ जातियों को ओबीसी सूची से बाहर कर दिया जाए, क्योंकि उनके हालात अब 'पिछड़े' नहीं माने जाएंगे।
- वहीं दूसरी ओर, कई उपेक्षित जातियों को ओबीसी में शामिल किया जा सकता है, जो अभी तक इस लाभ से वंचित हैं।
यह परिवर्तन आरक्षण व्यवस्था की पारदर्शिता और लाभार्थियों की वास्तविक ज़रूरतों को ध्यान में रखते हुए किया जाएगा।
राजनीति और सामाजिक समीकरण पर असर
भारत में लंबे समय से जातिगत आंकड़े राजनीतिक दलों के लिए रणनीतिक हथियार रहे हैं। जातिवार जनगणना को अब जनगणना प्रक्रिया में स्थायी रूप देने की योजना है, ताकि हर दशक में ताजा और प्रमाणिक जानकारी उपलब्ध हो सके। इस पहल से राजनीतिक दलों द्वारा जातिगत ध्रुवीकरण की कोशिशों को सीमित करने की उम्मीद जताई जा रही है।
आरएसएस की समन्वय समिति की बैठक में स्पष्ट किया गया कि संघ को जातिवार गणना से कोई विरोध नहीं है, लेकिन इसका राजनीतिक इस्तेमाल स्वीकार्य नहीं होगा। इसलिए इसे जनगणना का हिस्सा बनाकर निष्पक्ष बनाया गया है।
ओबीसी सूची में बदलाव: अब होगा वैज्ञानिक आधार
आज तक ओबीसी सूची में जातियों की एंट्री और एग्जिट अक्सर राजनीतिक या स्थानीय दबावों पर आधारित रही है। लेकिन अब सरकार के पास ठोस डेटा रहेगा, जिसके आधार पर वह सुप्रीम कोर्ट में भी अपना पक्ष मजबूती से रख सकती है।
इससे यह उम्मीद बनती है कि भविष्य में आरक्षण नीति केवल वास्तविक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए ही लागू की जाएगी, जिससे योग्य लोगों को लाभ मिले और आरक्षण का उद्देश्य भी पूरा हो।
1931 की जनगणना पर निर्भरता क्यों बनी रही?
अभी तक देश में पिछड़े वर्ग की जनसंख्या, सामाजिक स्थिति और आर्थिक हालत की जानकारी के लिए सिर्फ 1931 की जनगणना को ही आधार माना गया है। ब्रिटिश सरकार ने 1941 की जनगणना में जातिवार आंकड़े नहीं जुटाए, और आजादी के बाद से 1951 से अब तक किसी सरकार ने इसे लागू नहीं किया।
1991 में मंडल आयोग की सिफारिशों के आधार पर ओबीसी आरक्षण लागू किया गया, लेकिन उस समय भी अद्यतन आंकड़ों की कमी महसूस की गई।
2011 में हुई SECC जनगणना पर विवाद
2011 में संप्रग सरकार ने एक सामाजिक-आर्थिक जातीय जनगणना (SECC) करवाई थी, लेकिन वह मुख्य जनगणना का हिस्सा नहीं थी और उसमें भी भारी खामियां पाई गईं। आंकड़ों में विसंगतियों के चलते मनमोहन सिंह सरकार और बाद में मोदी सरकार ने इसे सार्वजनिक नहीं किया।
जातिवार जनगणना 2025: एक स्थायी व्यवस्था की ओर
सरकारी सूत्रों की मानें तो भविष्य में हर जनगणना के साथ-साथ जातिवार गणना भी अनिवार्य रूप से की जाएगी, ताकि हर 10 साल में जातियों की सामाजिक और आर्थिक प्रगति का मूल्यांकन हो सके।
इससे न केवल ओबीसी सूची का वैज्ञानिक पुनर्गठन संभव होगा, बल्कि इससे नीतियों में सुधार, लाभार्थियों की सही पहचान और जातिगत भेदभाव को समाप्त करने में भी मदद मिलेगी।
क्या बदलेगा भारत का सामाजिक परिदृश्य?
जातिवार जनगणना 2025 के बाद देश की आरक्षण नीति, ओबीसी सूची, और सामाजिक न्याय की परिभाषा बदल सकती है। यह कदम अगर निष्पक्ष रूप से और बिना राजनीतिक हस्तक्षेप के लागू हुआ, तो यह भारत के सामाजिक ढांचे में ऐतिहासिक बदलाव का वाहक बन सकता है।
अब देखना होगा कि जब 2025 की जातिवार जनगणना के आंकड़े सामने आएंगे, तो सरकार और न्यायपालिका किस तरह से ओबीसी सूची में परिवर्तन को लागू करती है। यह निश्चित रूप से भारत के राजनीतिक और सामाजिक इतिहास में एक नई शुरुआत होगी।
WORLD HEADLINES इस पूरे घटनाक्रम पर अपनी पैनी नजर बनाए हुए है। जैसे-जैसे नए अपडेट सामने आएंगे, हम आपको तुरंत जानकारी प्रदान करेंगे।

